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भारतीय सांस्कृतिक सभ्यता

भारतीय सांस्कृतिक सभ्यता

भारतीय राजनीति व्यवस्था 2014 से एक बड़े बदलाव को देख रही है। इसके मायने सबके लिए अलग हो सकते हैं। किसी को ये बदलाव, जहाँ सशक्त लोकतंत्र का बोध कराते हैं तो वहीँ कमज़ोर विपक्ष किसी को लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी के लिए खटकता है। पर इस भिन्नता के बावजूद जो बाद शाश्वत सत्य है वो है कि भारत एक बड़े राजनैतिक बदलाव से गुजर रहा है। और इस बदलाव में अलग अलग मत पर लोगों की अलग अलग सोच है।  इसमें से सबसे ज्वलंत मुद्दा है राष्ट्रवाद। और ये राष्ट्रवाद जहाँ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से शुरू होता है वहीँ ये धार्मिक राष्ट्रवाद या ये कहें तो हिन्दू राष्ट्रवाद तक चला जाता है। वैसे पिछले कुछ सालों में कट्टर राष्ट्रवाद को भी परिभाषित करने की तमाम कोशिश होती रही है और ये नित नए अर्थ के साथ हमारे सामने होती है। इसी बहस के बीच स्वपन दासगुप्ता की किताब 'अवेकनिंग भारत माता' भारतीय राष्ट्रवाद और उसके अतीत से जुड़े मुद्दों पर जरुरी प्रकाश डालती है। जयपुर लिटरेचर फेटिवल के चौथे दिन और 71वें गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर चर्चा में मौजूद रहे सबा नकवी, मकरंद परांजपे और स्वपन दासगुप्ता।

अपनी किताब पर बात करते हुए राज्यसभा सांसद और लेखक स्वपन दासगुप्ता ने कहा कि भारत में सदियों से राष्ट्रवाद की भावना निहित है पर उसको भुला दिया गया और हमेशा भारतीय राष्ट्रवाद को पश्चिम से प्रभावित मान कर ही देखा गया है। संविधान को महत्वपूर्ण दस्तावेज़ मानते हुए श्री स्वपन ने कहा कि आज से 70 साल पहले संविधान लागू हुआ था पर भारत के लोगों के अंदर की राष्ट्रीयता बहुत पहले से उनके अंदर है। सबा नकवी ने किताब पर सवाल उठाते हुए कहा कि ऐसा क्यों है कि खिलाफत आंदोलन से पहले मुस्लिम को जोड़े बिना कोई किताब ही नहीं लिखी जा सकती? और क्यों इस किताब में गोलवलकर, हेडगेवार जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं के बयान नहीं हैं।

सबा नक़वी का जवाब देते हुए श्री स्वपन ने कहा कि पश्चिमी देशों के दक्षिणपंथ और वामपंथ के बीच विरोधभास है, पर भारत में ये विरोधाभास कहीं ज्यादा है। भारतीय दक्षिणपंथ के अत्यधिक सरल तरीके से चित्रित किये जाने के कारण ही पूरे किताब में उन हस्तियों को संकलित किया गया है जिनको इतिहास ने भुला दिया है। रामानंद चटर्जी का उदाहरण लेते हुए श्री स्वपन ने कहा कि उनके जैसे उदारवादी बहुत कम हुए है और इसके साथ ही वो हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में सर्वधर्म समन्वय की बात करते हुए, सभा के अंत में मकरंद परांजपे ने कहा कि भारत के हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इस बात को मानते है कि भारत ने अतीत में अपनी संप्रभुता गवाई है। जहाँ हिंदुओं के लिए संप्रभुता कई सौ साल पहले खोई थी। वहीं मुसलमानों के लिए उन्होंने संप्रभुता 1757 में खोई तथा संप्रभुता को पाने के तरीके भी उनके लिए अलग हैं।