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देशहित में बनें 'अच्छे नागरिक'।

देशहित में बनें 'अच्छे नागरिक'।

'लोकतंत्र में नागरिक से बड़ा कोई पद नहीं होता' लेकिन यह निराशाजनक है कि हमें हमेशा अच्छा माता-पिता, पति-पत्नी, बेटा-बेटी और डॉक्टर-इंजीनियर बनना तो सिखाया जाता है लेकिन एक अच्छा नागरिक बनने की तालीम नहीं दी जाती। दुर्भाग्य यह भी है कि हममें से अधिकतर लोग 'संविधान' शब्द तो सुनते हैं लेकिन संविधान की किताब या उसकी प्रस्तावना कभी पढ़ी ही नहीं है। आज हमारे देश में जगह-जगह जो 'संविधान की प्रस्तावना' पढ़ी जा रही है वो भारतीय लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है।

यह बात अपनी निर्भीक पत्रकारिता के लिए प्रतिष्ठित मैग्सेसे अवॉर्ड से सम्मानित रवीश कुमार ने डिग्गी पैलेस के पूरी तरह भरे हुए 'चारबाग़' में मौजूद लोगों से मुख़ातिब होते हुए कही। 'ज़ी जयपुर लिट्रेचर फ़ेस्टीवल' में गणतंत्र दिवस के मौक़े पर यह सत्र बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमें जनता के, जनता के लिए, जनता द्वारा स्थापित लोकतंत्र की आस्थाओं और चिंताओं पर 'जनता' के सामने ही सीधी बात की जानी थी। अपने निर्भीक बयानों और तीखे तेवरों के लिए पहचान रखने वाले पत्रकार रवीश कुमार का स्वागत लोगों ने जिस तरह खड़े हो कर, तालियाँ बजा कर किया उससे स्पष्ट हो गया कि लोग उन्हें सुनने के लिए बेक़रार हैं। रवीश ने भी इन श्रोताओं को निराश नहीं किया और डट कर बेख़ौफ़ अंदाज़ में वो सारी बातें कीं जिनकी सुनने वाले उनसे उम्मीद कर रहे थे। उन्होंने धर्म और पहनावे के आधार पर लोगों को अलग करने और नफ़रत की आग को हवा देने वालों की जम कर क्लास लगाते हुए कहा कि हमें किसी एक पार्टी के फ़ायदे या नुकसान के लिए नहीं बल्कि लोकतन्त्र की सुरक्षा के लिए एक जागरूक नागरिक बनना है। मीडिया हो, धर्म व मज़हब के तथाकथित ठेकेदार हों या फिर कोई भी राजनीतिक दल हो, सब एक आम नागरिक को मोहरा बनाने में लगे हैं। हमें मोहरा बनने से इंकार करना होगा। सतर्क रहना होगा कि नफ़रत भरी राजनीति का शिकार होकर हमारे अपने घरों के बच्चे हत्यारे न बन जाएँ।

उन्होंने अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में वर्तमान मीडिया पर 'लोकतंत्र की हत्या' आरोप लगाया और कहा कि टीवी पर डिबेट करने से देश का भला नहीं हो सकता।ज़रूरी है कि अपने अधिकारों से जुड़े प्रश्नों को हाशिये से उठा कर सामने लाया जाये और जो यह कर रहे हैं उनका साथ भी दिया जाए।
अपनी किताब 'बोलना ही है' की चर्चा होने पर उन्होंने कहा कि कुछ सालों पहले जब उन्होंने पहली किताब 'इश्क़ में शहर होना' लिखी थी तो उन्हें लगता था कि चारों ओर प्यार ही प्यार है लेकिन जल्दी ही हर तरफ़ बढ़ती नफ़रत की तपिश ने उन्हें यह सोचने और लिखने की वजह दी कि 'बोलना ही है।'
रवीश इस बात से तो बहुत खिन्न दिखे कि आज लोग आज़ादी से जुड़ी महान विचारधारा और कहानियों को लगभग भूल चुके हैं लेकिन उन्होंने इस बात की गहरी उम्मीद भी जताई कि भारतीय लोकतन्त्र का भविष्य सुखद है क्योंकि अब इस देश का आम नागरिक, ख़ासतौर पर औरतें अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने के लिए न केवल उठ खड़ी हुई हैं बल्कि सड़कों पर उतर आयी हैं।
पूरे एक घण्टे तक चले इस सत्र को सैकड़ों लोगों ने बैठने की जगह न मिलने पर खड़े होकर सुना। इस महत्वूर्ण सत्र के संचालन की ज़िम्मेदारी नीलांजना एस. रॉय ने बेहद गंभीरता से निभाई। प्रस्तुति 'दैनिक भास्कर' की थी।